मैं और मेरा घर (My Home and Me)

A “Home Connect” Essay by Naresh Kumar:
“The kind of attachment and longing one has for their home, is perhaps best understood by those who stay away from home!”
The Home is located at a village in Ranchi, the Capital of Jharkhand state in India. The Writer is Naresh Kumar.
What Naresh expects from a Smart city – “More green and open spaces”
Image Source – Author
Read the story of Naresh’s home here…
मैं और मेरा घर
(My Home and Me)
किसी का घर से कैसा रिस्ता है, कितना लगाव है ये शायद वो लोग बेहतर समझते हैं जो घर से दूर रहते हैं।
अब सवाल ये कि आखिर वो घर कौन सा ?
सबके लिए ये सवाल शायद उतना अहमियत ना रखता हो। पर मेरे जैसा इंसान, जिसने हर कुछ साल में अपने घर को बदलते देखा है।
पिताजी एक सरकारी स्कूल में बतौर शिक्षक कार्यरत थे। सरकारी नौकरी ने, उन्हें ना तो कभी एक जगह टिकने दिया और ना ही हमारे मन को कहीं जुड़ने दिया। इंसानो से तो फिर भी दोस्ती हो गयी, पर घर! वो बस इमारत बन कर रह गए। किराये के मकानों से लगाव हो भी तो कैसे?

हाँ! एक घर है मेरे दादाजी का, रांची से तक़रीबन 50km दूर, एक छोटे से गाँव में। ये वो घर था जहां मेरा बचपन गुजरा था, जो गवाही था मेरी शरारतों का। शहर आकर तो शरारतों ने भी जैसे मुंह मोड़ लिया। अब वो शहर की तंग गालियां थीं या भीड़ में अकेलापन, मैं बाहर सहमा-सहमा ही रहता था।
शांत, स्थिर।
हाँ , मगर फिर वो गर्मी की छुट्टी हो या दशहरा या कोई और बहाना, जब भी गांव लौटता मेरे साथ मेरा बचपन, और मेरी शरारतें भी लौट आतीं। उस मखमली मौसम की तरह जो साल-दर साल लौटती रहती है, एक तयशुदा अंतराल पर।
गांव से गुजरते एकमात्र पक्की सड़क से लगकर बनाया गया था इसे। बावजूद चहारदीवारी ने कई ऐसे हिस्से तैयार किये थे कि हम अपना निजी हिस्सा आसानी से ढूंढ लेते। छोटा सा परिवार था हमारा, दादा-दादी, माँ-पिताजी, भैया, मैं और मेरी छोटी बहन। इसके अलावा दो काका थे जो हमारे मवेशियों को देखते और खेती मैं दादाजी का हाथ बंटाते। घर के दो हिस्से थे। एक ईटों और सीमेंट से बना पक्का मकान, जिसमें हम रहते थे और दूसरा गारे पत्थर से बना कच्चा मकान जो सिर्फ मवेशियों के लिए था। और दोनों के बीचो-बीच एक आँगन, जिसमें दो चूल्हे और एक तुलसी का पिण्डा। रसोई घर तो अंदर था, पर आँगन मैं अक्सर माँ धान उबालती। हम तीनों पास ही चारपाई पर पढाई करते। तब तक जब तक कि नींद नहीं आ जाती या फिर किसी बेतुके बात पर हम लड़ नहीं बैठते। भाई-बहन कि लड़ाईयाँ तो हिस्सा है जीने का।
कई बार गर्मी की रातों मैं कुछ घुसपैठिये भी आ धमकते। कभी करैत, तो कभी धामन। हम चिल्लाते हुए चारपाई पर कूदते पर दादाजी बड़े ही धीरज से उन सबको बाहर का रास्ता दिखा देते। जब तक निहायती जरुरी न हो, वो उन्हें मारते नहीं थे ।
मवेशियों में एक जोड़ा बैल और एक जोड़ा भैंसा था। काका इन्हे चराते और खेती के कामों में इस्तेमाल करते। कभी-कभी भैसे पर बैठ मैं और भईया खेतों की सैर भी करते। एक गाय थी, दूध के लिए। कुछ बकरे-बकरियां, त्योहारों में मांस के लिए। कुछ बतख और मुर्गियां भी थीं, जो क्षणिक जरूरतों के पूरक थे। घर से थोड़ी दूर अपना तालाब था। वैसे तो इसका काम बरसाती पानी को जमा करने का था, पर थालियों पर परोसी जाने वाली मछलियां भी यहीं से आते थे। मैं अक्सर बंसी थामे घंटो मछलियों का इंतज़ार करता। कांटे में फंसते ही घर की तरफ दौड़ पड़ता । छोटा था ना, कांटे से मछली निकलना मेरे बस की बात कहाँ। मुझे याद है मेहमान भले ही कुछ घंटे के लिए क्यों ना आएं हों, उन्हें हमेशा मांसाहारी व्यंजन ही परोसा गया।

खपरैल वाले मकान में छत के ठीक नीचे कतार में कुछ मटके भी टंगे थे , कबूतरों के लिए। उनकी गुटरगूं से पूरा आँगन गूंजता रहता। आँगन से लगकर एक कुँआ था। पानी इतना मीठा की राह चलता मुसाफिर अक्सर रुक कर अपनी प्यास बुझाता फिर तारीफें कर शुक्रिया अदा करता। मुझे कुँवे में झाँकना बहुत अच्छा लगता। अपनी ही लहराती परछाई मुझे खुश कर देती। फिर गर थोड़ी ताली बजा दो या अंदर मुँह कर के शोर मचा दो, गौरये का पूरा झुण्ड एक साथ बाहर निकलता, हवा में गोते लगता और वापस अंदर। मैं जोर-जोर से तालियां बजता।
कुँवे के एक तरफ स्नानघर था और बाकी पेड़ पौधों से पटा। खुशबु खातिर चमेली, तो दातुन के लिए नीम। सब्जी के लिए सहजन, तो फलों के लिए अमरूद, संतरा, बेल और आम। कुँवें के पास क्यारियों में कुछ पुदीने, कुछ गाजर, कुछ धनिया और एक नींबू।
मैं स्कूल से आता जूते आँगन में ही फेंकता और सीधे अमरुद के पेड़ पर। अमरुद होते तो अमरुद खाता नहीं तो उसपर लगे झूले में घंटो झूलता। माँ नहलाने को आती तो ऊपर चढ़ जाता। फिर तब तक नहीं उतरता जब तक भैया ऊपर आ मुझे नीचे फेंकने की धमकी ना देता। मैं चढ़ता तो तने से, पर उतरता हमेशा डालिओं से। मेरी उस हलकी-फुलकी वजन से वो बस झुक जाते, कभी टूटे नहीं।

चहारदीवारी से लगकर कई किस्म के पेड़ लगे थे। अमरुद, कटहल, बेल, शिरीष, आम, नीम, करंज इत्यादि। वैसे मुझे भी पेड़-पौधों का बड़ा शौक था। गेंदे, सूरजमुखी का बीज हो या गुलाब उड़हुल की डालियाँ, सभी लगायी थी अहाते के अंदर। पास के गाँव में जा-जा कर इकट्ठे करता था इन्हे। कभी कभी कुछ दोस्त मिलकर, नए पेड़ों के लिए पौधे लाने, बड़ी उम्मीद के साथ पास के सरकारी नर्सरी तक जाते और उतनी ही बेरुखी के साथ चौकीदार द्वारा डांट कर भगाये जाते ।
फिर हम शैतानो की फौज आधी रात वापस आती और मौका पाते ही पौधों पर हाथ साफ़ करती। जिस से जितना उठ पाया उठा लिया।
अपना तो सीधा हिसाब था, गांव के पास का सारा इलाक़ा अपनी मिल्कियत थी। फिर अपने घर पर चोरी, चोरी थोड़ी न होती है। हाँ कपड़ों पर पड़ी मिटटी माँ को छड़ी उठाने के लिए मजबूर करती। पर इस बात की तसल्ली थी कि पेड़ों का 60 फीसदी हिस्सा इन्ही चोरियों के नतीजे थे। हाँ आज इनका कद मुझसे काफी बड़ा है।
चहारदीवारी के अंदर का बाकी हिस्सा कई छोटे भागों में बंटा था। बड़ा हिस्सा खलिहान का था और बाकी साग सब्जियों के लिए। खलिहान पर पुआल का ढेर अनाज के साथ हम बच्चों को संभालता। भले ही सारी रात फिर देह खुजलाते बितानी पड़े।
सर्दियों में यही पुआल अलाव जलाने के काम आता। हम बच्चो के अलावा पास के कोई ताऊ या चाचा भी शरीक हो जाते। फिर चलता कहानियों का दौर जिसका समापन माँ के खाने पर बुलावे के साथ हो जाता। पुष के दौरान तो ये दौर सुबह दुबारा चलता।
बाड़ी पर उगी सब्जियों से घर का रशद चलता। दाल और चावल भले ही बाहर खेतों पर उगते हों, पर सारी सब्जियां अंदर ही। सुबह का नास्ता सर्दियों में गाजर, मटर या भुट्टों संग होती और गर्मियों में आम और जामुन । जामुन कुछ ही खाओ तो लगता जैसे गले तक भर गया हो। अच्छा वाला आम पास के गांव से आता था। मैं सुबह-सुबह बाट जोहता छत पर जा बैठता। नज़र पड़ते ही चिल्ला कर पहले उसे रोकता फिर पिताजी से खरीदने की जिद करता। कभी इनकी दरियादिली का मन हुआ तो पूरी की पूरी टोकरी खरीद लेते और हम दिन भर चूस-चूस कर उन्हें खाते फिरते।

घर के अंदर मनोरंजन के लिए कॉमिक्स, चम्पक या नन्हे सम्राट होता जिसे मैं या भैया जिद करके खरीदवाते। या फिर 14″ का ब्लैक एंड वाइट टीवी। उन दिनों गांव में बस दो ही घरों में टीवी था। सड़क के किनारे होने की वजह से ज्यादातर भीड़ हमारे घर पर होती। महाभारत और श्रीकृष्ण का दौर। गांव के लोगो के साथ-साथ राह चलते मुसाफिर भी रुक जाते। बिजली की समस्या हुई तो कोई न कोई बैटरी ले आता। फिर घंटे भर सब टीवी पर नजरे गड़ाए रहते।
उन दिनों एक पावरोटी वाला भी रुकता था। हम नज़रें बचा कर बाहर निकल जाते और उसके पेटी में थोड़ा-थोड़ा हाथ साफ़ करते रहते। कभी-कभी तो लगता, वो जान बुझ कर हमारे लिए कुछ पाव बाहर रख छोड़ता था।
पिताजी के तबादले के बाद, ये सब शरारतें छुट्टियों में सिमट गए। कुछ साल तक सब ऐसा ही चलता रहा, पर दादा दादी के गुजरने के बाद सब सन्नाटे में गुम हो गए। मवेशियां तो सबसे पहले ठिकाने लगे। पर हमारी गैरहाज़री में कबूतर भी चलते बने। अब साल दो साल में एक बार ही जाना मुकम्मल होता है। पूरा घर घास से भरा मिलता है। बिना प्यास बुझाये कुंआ भी नाराज़ रहता। अब उसके पानी में पहले सी मिठास नहीं।
फिर भी माँ हिम्मत कर, गांव की बड़ी बहु का किरदार बखूबी निभाती। अड़ोस-पड़ोस की भाभियों और चाचियों से मदद ले घर को फिर से दुरुस्त करने में जुट जाती। भले ही वो चंद रोज़ की बात ही क्यों न हो। हमारे आने की खबर कैसे महक उठती है ये तो पता नहीं। पर कुछ ही रोज़ में सूने पड़े घड़े फिर से आबाद हो जाते हैं। कबूतरों के गुटरगूं से घर फिर से गूंज उठता है। चोरी के तो नहीं, मेरे कुछ ख़रीदे हुए पौधे जगह ढूंढ लेते हैं, पुराने पेड़ों के बीच। तजुर्बे के इस पड़ाव में सिर्फ इतना कह सकता हूँ घर सिर्फ एक ढांचा नहीं है। यह एक अनकहा लगाव है जो जान और बेजान दोनों में बराबर बसता है। यह एक मानसिक संतुलन है जो सिर्फ नजर भर देखने से मिलता है। सब के सब लम्हे यूँ ताज़े हो जाते हैं जैसे कल की ही बात हो ।
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